Friday, June 29, 2007

रचनाकार: ग़ालिब

महरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ



ज़ौफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है के उठा भी न सकूँ



ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या क़सम है तेरे मिलने की के खा भी न सक

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सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता कि फिर ख़न्जर कफ़-ए-क़ातिल में है



देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है



गरचे है किस किस बुराई से वले बा ईं हमा
ज़िक्र मेरा मुझ से बेहतर है कि उस महफ़िल में है



बस हुजूम-ए-ना उमीदी ख़ाक में मिल जायगी
यह जो इक लज़्ज़त हमारी सइ-ए-बेहासिल में है



रंज-ए-रह क्यों खेंचिये वामांदगी को इश्क़ है
उठ नहीं सकता हमारा जो क़दम मंज़िल में है



जल्वा ज़ार-ए-आतश-ए-दोज़ख़ हमारा दिल सही
फ़ितना-ए-शोर-ए-क़यामत किस की आब-ओ-गिल में है



है दिल-ए-शोरीदा-ए-ग़ालिब तिलिस्म-ए-पेच-ओ-ताब
रहम कर अपनी तमन्ना पर कि किस मुश्किल में है

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न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही



ख़ार-ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है
शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही



मय परस्ताँ ख़ुम-ए-मय मुँह से लगाये ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही



नफ़ज़-ए-क़ैस के है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा
गर नहीं शम-ए-सियहख़ाना-ए-लैला न सही



एक हंगामे पे मौकूफ़ है घर की रौनक
नोह-ए-ग़म ही सही, नग़्मा-ए-शादी न सही



न सिताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशार में माने न सही



इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ुबाँ ही ग़नीमत समझो
न हुई "ग़ालिब" अगर उम्र-ए-तबीई न सही

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बस कि दुश्वार है हर काम क आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्साँ होना



गिरिया चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की
दर-ओ-दीवार से टपके है बयाबाँ होना



वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ के हर दम मुझ को
आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना



जल्वा अज़बस के तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आईन भी चाहे है मिज़ग़ाँ होना



इश्रत-ए-क़त्लगह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियाँ होना



ले गये ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-निशात
तू हो और आप ब-सदरंग-ए-गुलिस्ताँ होना



इश्रत-ए-पारा-ए-दिल, ज़ख़्म-ए-तमन्ना ख़ाना
लज़्ज़त-ए-रीश-ए-जिगर ग़र्क़-ए-नमक्दाँ होना



की मेरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
हाये उस ज़ूदपशेमाँ का पशेमाँ होना



हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना

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दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है



हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है



मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है



जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा, ऐ ख़ुदा क्या है



ये परी चेहरा लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अदा क्या है



शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरी क्यों है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा क्या है



सब्ज़ा-ओ-गुल कहाँ से आये हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है



हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है



हाँ भला कर तेरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है



जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है



मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या ह

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