Friday, June 29, 2007

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यूँ

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यूँ

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यूँ
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यूँ



दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाये क्यूँ



जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरत-ए-मेह्र-ए-नीमरोज़
आप ही हो नज़्ज़ारासोज़, पर्दे में मुँह छुपाये क्यूँ



दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँसिताँ, नावक-ए-नाज़ बेपनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यूँ



क़ैद-ए-हयात-ओ-बन्द-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाये क्यूँ



हुस्न और उस पे हुस्न-ए-ज़न रह गई बुलहवस की शर्म
अपने पे एतिमाद है ग़ैर को आज़माये क्यूँ



वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास वज़अ
राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलायें क्यूँ



हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओ-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यूँ



"ग़ालिब"-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बन्द हैं
रोईए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यूँ

1 comment:

उन्मुक्त said...

आपकी कविताये भी अमोल हैं बहुत सुन्दर